रीति काल के ब्रजभाषा कवियों में पद्माकर (1753-1833) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म सन 1753 में मध्यप्रदेश के सागर में हुआ था। वे हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में अंतिम चरण के सुप्रसिद्ध और विशेष सम्मानित कवि थे। मूलतः हिन्दीभाषी न होते हुए भी पद्माकर जैसे आन्ध्र के अनगिनत तैलंग-ब्राह्मणों ने हिन्दी और संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में जितना योगदान दिया है वैसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
मूलतः तेलगु भाषी इनके पूर्वज दक्षिण के आत्रेय, आर्चनानस, शबास्य-त्रिप्रवरान्वित, कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा के यशस्वी तैलंग ब्राह्मण थे। पद्माकर के पिता मोहनलाल भट्ट सागर में बस गए थे। यहीं पद्माकर जी का जन्म सन् 1753 में हुआ। परन्तु ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और ‘बाँदा डिस्ट्रिक्ट गजेटियर’ के अलावा कुछ विद्वान मध्यप्रदेश के सागर की बजाय उत्तर प्रदेश के नगर बांदा को पद्माकर की जन्मभूमि कहते हैं, जो सही नहीं है! – शायद यह भूल इसलिए भी चलती आयी है क्योंकि बहुत से वर्ष उन्होंने बांदा में रहते ही बिताए।
पद्माकर रचित ग्रंथों में सबसे जाने माने संग्रहों में – हिम्मतबहादुर विरुदावली, पद्माभरण, जगद्विनोद, रामरसायन (अनुवाद), गंगालहरी, आलीजाप्रकाश, प्रतापसिंह विरूदावली, प्रबोध पचासा, ईश्वर-पचीसी, यमुनालहरी, प्रतापसिंह-सफरनामा, भग्वत्पंचाशिका, राजनीति, कलि-पचीसी, रायसा, हितोपदेश भाषा (अनुवाद), अश्वमेध आदि प्रमुख हैं।
व्रजभाषा के अलावा संस्कृत और प्राकृत पर भी पद्माकर का अद्भुत अधिकार था- उनके अप्रकाशित संस्कृत-लेखन पर गहन शोध-कार्य अपेक्षित है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद के हिन्दी / संस्कृत विभाग ने कभी इसी दिशा में कुछ शोध-परियोजनाएं बनाई थीं।
कहा जाता है- जीवन के अंतिम समय में उन्हें कुष्ठरोग हो गया था, जिस से वह गंगाजल के ओषधिमूलक प्रयोग के बाद अंततः स्वस्थ भी हो गए। जगन्नाथ पंडितराज की तरह गंगा की स्तुति में अपने जीवन-काल की अंतिम काव्य-रचना “गंगा-लहरी” लिख कर कानपुर में गंगा-किनारे उनका 80 वर्ष की आयु में सन् 1833 में निधन हुआ। सागर में तालाब घाट पर पद्माकर की मूर्ति स्थापित है।