हिंदी साहित्य की एक महान कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त, 1904 को भारत के निहालपुर गाँव में हुआ था। वह ऐसे माहौल में पली-बढ़ी जहां साहित्य और देशभक्ति के प्रति उनका प्रेम विकसित हुआ। चौहान ने अपनी शिक्षा इलाहाबाद के क्रॉस्थवेट गर्ल्स स्कूल से प्राप्त की और बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की।
यूं तो उन्होंने अपने जीवनकाल में कई कविताएं लिखीं। लेकिन, कुछ ऐसी कविताएं भी हैं, जिन्हें अमूमन कम याद किया जाता। प्रस्तुत हैं उन्हीं में से 3 कविताएं –
मेरा जीवन
मैंने हंसना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना;
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना।
मैं अब तक जान न पाई
कैसी होती है पीड़ा
हंस-हंस जीवन में
कैसे करती है चिंता क्रीड़ा
जग है असार सुनती हूं,
मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आंखों के आगे
सुख का सागर लहराता।
उत्साह, उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हंसता
मेरे मतवाले मन में।
आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन।
सुख-भरे सुनले बादल
रहते हैं मुझको घेरे;
विश्वास, प्रेम, साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।
ठुकरा दो या प्यार करो
देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं
धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं
मैं ही हूं गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी
धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं
कैसे करूं कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं
नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी
पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो
मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूं
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूं
चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो
झिलमिल तारे
कर रहे प्रतीक्षा किसकी हैं
झिलमिल-झिलमिल तारे?
धीमे प्रकाश में कैसे तुम
चमक रहे मन मारे।
अपलक आंखों से कह दो
किस ओर निहारा करते?
किस प्रेयसि पर तुम अपनी
मुक्तावलि वारा करते?
करते हो अमिट प्रतीक्षा,
तुम कभी न विचलित होते।
नीरव रजनी अंचल में
तुम कभी न छिप कर सोते।
जब निशा प्रिया से मिलने,
दिनकर निवेश में जाते।
नभ के सूने आंगन में
तुम धीरे-धीरे आते।
विधुरा से कह दो मन की,
लज्जा की जाली खोलो।
क्या तुम भी विरह विकल हो,
हे तारे कुछ तो बोलो।
मैं भी वियोगिनी मुझसे
फिर कैसी लज्जा प्यारे?
कह दो अपनी बीती को
हे झिलमिल-झिलमिल तारे!