जगनिक महोबा के चन्देल राजा परमार्दिदेव (परमाल ११६५-१२०३ई.) के समकालीन जिझौतिया नायक परिवार में जन्मे कवि थे इनका पूरा नाम जगनिक नायक था । इन्होने परमाल के सामंत और सहायक महोबा के आल्हा-ऊदल को नायक मानकर आल्हखण्ड नामक ग्रंथ की रचना की जिसे लोक में ‘आल्हा’ नाम से प्रसिध्दि मिली।
इसे जनता ने इतना अपनाया और उत्तर भारत में इसका इतना प्रचार हुआ। परन्तु इसके बाद भी मूल काव्य संभवत: लुप्त हो गया। विभिन्न बोलियों में इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप मिलते हैं। अनुमान है कि मूलग्रंथ बहुत बड़ा रहा होगा। अंग्रेज़ों के शासनकाल में फर्रूखाबाद के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने ‘आल्ह खण्ड’ नाम से इसका संग्रह कराया जिसमें जिहुती हिंदवी भाषा की बहुलता है। आल्ह खण्ड जन समूह की निधि है। रचना काल से लेकर आज तक इसने भारतीयों के हृदय में साहस और त्याग का मंत्र फूँका है। इसके बाद भी कई छिटपुट प्रयास हुए हैं, लेकिन अर्थ सहित पूरा ‘आल्हखंड’ प्रकाशित नहीं हो सका है। पं. ललिता प्रसाद मिश्र द्वारा रचित आल्हा 52 खंडों में उपलब्ध है। यह अवधी-बुंदेली मिश्रित शैली में है और सिर्फ काव्य रूप में ही है।
कवि जगनिक द्वारा रचित ‘परमाल रासो’ में आल्हा और ऊदल का जिक्र है। दोनों भाइयों ने परमाल के राज्य पर हुए आक्रमण का जवाब देते हुए दिल्ली के वीर राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान को पराजित किया था। पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंदरबरदाई की रचना ‘पृथ्वीराज रासो’ में भी आल्हा और ऊदल का जिक्र मिलता है, जिससे यह सत्यापित होता है कि जगनिक और पृथ्वीराज समकालीन थे और उसी दौर में आल्हा-ऊदल अपनी वीरता का लोहा मनवा रहे थे।
आल्हा का कोई एक विधिवत ग्रंथ नहीं है, जिसमें अर्थ सहित पूरा विषय स्पष्ट किया गया हो, जैसा रामचरितमानस के साथ है। इसके बावजूद हिंदी क्षेत्र में इसकी लोकप्रियता को रामचरितमानस के बाद दूसरे स्थान पर रखा जा सकता है। जगनिक द्वारा रचित ‘आल्हखंड’ अप्राप्य है।