परम्पराएं,
परम्पराएं ही हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखती है। गाँव, वर्ग, समाज, स्थान; आदि की भिन्न-भिन्न परम्पराएं होती है। कुछ परम्पराएं इतिहास के तथ्यों पर आधारित होती है तो कुछ लोगों की मान्यताओं और भावनाओं पर। यह परम्पराएं पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती हैं और लोग इनसे जुड़े रहते हैं। कुछ अनोखी परम्पराएं किसी स्थान से भी जोड़ दी जाती है, जिससे परदेस में गया व्यक्ति भी बरसों तक उससे जुड़ा रहता है। उससे जुड़ा होने और उसे निभाने में गर्व करता है।
ऐसी ही एक अनोखी परंपरा इंदौर के निकट के एक गाँव की है, जहां दशहरे के बाद गरबे किए जाते हैं और धूमधाम से मेला आयोजित किया जाता है।
इंदौर के राऊ क्षेत्र में एक गाँव है, जिसका नाम रंगवासा है। यहाँ दशहरे के दूसरे दिन से ही चहल-पहल बढ़ जाती है। यहाँ आसपास के दर्जनों गांवों से भीड़ उमड़ने लगती है। इसका कारण है कि यहाँ होल्कर काल से चले आ रहे गरबे। यहाँ दशहरे के बाद से ही उत्सव मनता आ रहा है जो समय के साथ बड़े मेले में परिवर्तित हो गया है। यहाँ दशहरे के दूसरे दिन से ही 2 दिनों तक गरबे किए जाते हैं फिर अगले दिन देवी-देवताओं का नगर भ्रमण होता है तो उनके लिए रतजगे भी किए जाते हैं। जहां पूरा देश दशहरे के दिन रावण दहन करता है तो वहीं रंगवासा में पूर्णिमा के अगले दिन रावण जलाया जाता है।
लोक किंवदंती है कि जब श्रीराम और रावण का युद्ध चल रहा था तो श्रीराम ने रावण के दस सिर काटने के लिए बाण चलाए थे। जिसके बाद रावण का एक सिर रंगवासा गाँव में आकार गिरा था। इसी के कारण गांववासी इस स्थान को एक विशेष स्थान मानते आ रहे हैं। जिसके कारण यहाँ दशहरे के बाद दो दिन गरबा करने और पूर्णिमा के अगले दिन रावण दहन करने की एक अनोखी परंपरा चलती आ रही है।