मध्यप्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा की गोद में बसा, मनोरम घाटों और अति-प्राचीन मंदिरों वाला जबलपुर महकौशल का सबसे बड़ा शहर है। पर्यटन की दृष्टि से समृद्ध और मध्यप्रदेश की संस्कारधानी कहे जाने इस शहर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन, आज भी यहाँ की बड़ी आबादी रोज़गार के अवसर, अच्छी सड़कें व यातायात, नर्मदा जल के सही प्रबंधन जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है।
लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण के तहत प्रदेश कि जिन 6 सीटों पर वोटिंग होना है, उनमें एक सीट जबलपुर भी है। पिछले 8 चुनावों से यहाँ बीजेपी ही जीतती आई है। इस बार दोनों ही पार्टियों ने इस सीट से नए चेहरों को मैदान में उतारा है। भाजपा की ओर से पूर्व भाजपा नगर अध्यक्ष आशीष दुबे मैदान में हैं, वहीं कांग्रेस ने भी अपने ज़िला अध्यक्ष दिनेश यादव को मैदान में उतारा है। एक पार्टी के लिए यह चुनाव महज़ एक औपचारिकता है तो दूसरी के लिए चुनौती.. जबलपुर लोकसभा सीट की कहानी सुनने में जितनी आसान है, असल स्थिति इससे बेहद पेचीदा और रोचक भी है। यहाँ एक ही पार्टी के नेताओं के बीच में आपसी कलह है, वोट के साथ नोट मांगने वाले प्रत्याशी हैं और इन सबके बीच कहीं दबकर रह गए आम जनता के मुद्दे तो हैं ही। एक-एक कर हर मुद्दे की बात करेंगे, इस खास रिपोर्ट में..
जबलपुर लोकसभा सीट पर सबसे अधिक आबादी ब्राह्मण वोटरों की है। इसके अलावा कुल 18.83 लाख वोटरों में मुस्लिम वोटरों की संख्या 2.25 लाख और यादव वोटरों की संख्या 1 से डेढ़ लाख के बीच में है। दोनों पार्टियों ने जबलपुर के जातिगत समीकरण का विशेष ध्यान रखते हुए ही अपने-अपने प्रत्याशी उतारे हैं। भाजपा प्रत्याशी आशीष दुबे ब्राह्मण समाज से आते हैं, तो वहीं दिनेश यादव डेढ़ लाख यादवों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। भाजपा अपनी पारंपरिक सीट पर 8वीं बार प्रचंड बहुमत से जीत हासिल करने कि रणनीति बना चुकी है, जबकि कांग्रेस 28 साल का सूखा खत्म करने की उठा-पटक में लगी हुई है।
2019 लोकसभा चुनाव में तो कांग्रेस इस सीट पर फिर भी अच्छी स्थिति में थी। क्योंकि, 2018 विधानसभा चुनाव में जबलपुर की 8 सीटों में से 4 कांग्रेस के कब्ज़े में थी। लेकिन, 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल एक सीट पर सिमट कर रह गई। इस सीट से जबलपुर कांग्रेस का बड़ा चेहरा कहे जाने वाले लखन घनघोरिया विधायक हैं और उन्हें ही पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए जबलपुर का प्रभारी भी बना दिया है। विधानसभा चुनाव का गणित देखा जाए, तो मामला अभी भाजपा के पक्ष में अधिक नज़र आ रहा है। अब आते हैं प्रत्याशियों पर..
भाजपा प्रत्याशी आशीष दुबे को केंद्रीय नेतृत्व इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी देगा, ये किसी ने सोचा भी नहीं था। जबलपुर के ग्रामीण अंचल पाटन से राजनीति की शुरुआत करने वाले आशीष पूर्व में जबलपुर भारतीय जनता युवा मोर्चा अध्यक्ष, बीजेपी नगर अध्यक्ष और प्रदेश मंत्री जैसे कई दायित्वों का निर्वहन कर चुके हैं। उन्हें गृह मंत्री अमित शाह और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा का करीबी भी माना जाता है। लोकसभा का टिकट मिलने के बाद उन्हीं के क्षेत्र पाटन से वर्तमान विधायक व पूर्व कैबिनेट मंत्री अजय विश्नोई यह आरोप लगा चुके हैं की विधानसभा का टिकट नहीं मिलने पर आशीष दुबे ने नगर अध्यक्ष के रूप में अपना दायित्व नहीं निभाया और कांग्रेस के प्रत्याशी को वोट तक डलवा दिए। हालांकि, चुनाव आते ही दोनों नेता बैर-भाव भूलकर जबलपुर सीट पर चुनाव प्रचार में संलग्न हो गए। अब दोनों एक साथ चुनावी रैलियों में भी दिख जाया करते हैं।
यहाँ एक बात गौर करने वाली ये भी है कि ब्राह्मणों की इतनी आबादी के बाद भी भाजपा ने 20 साल बाद इस सीट से किसी ब्राह्मण प्रत्याशी को टिकट दिया है। 2004 के पहले जयश्री बनर्जी और बाबूलाल परांजपे उम्मीदवार रहे। ये दोनों ब्राह्मण समाज से ही थे।
दूसरी ओर हैं जबलपुर ज़िला कांग्रेस अध्यक्ष दिनेश यादव, जिनकी छवि एक मध्यम वर्गीय व्यापारी की है। कुछ दिनों पहले दिनेश यादव एक्स पर खूब वायरल हुए, जब उन्हें जबलपुर की गलियों में घूम-घूमकर वोट के साथ जनता से नोट भी मांगते देखा गया। दिनेश यादव घरों-दुकानों पर जाकर लोगों से 10-10 रुपए मांग रहे थे। वीडियो में वे कहते नजर आ रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी के सारे खातों को सरकार ने फ्रीज कर दिया है। प्रत्याशियों के पास चुनाव लड़ने तक पैसे नहीं है। ऐसे में जनता का ही सहारा है।
क्लस्टर प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय और जबलपुर से पूर्व सांसद व वर्तमान में पीडब्ल्यूडी मंत्री राकेश सिंह ने ये तक कह दिया है कि कांग्रेस चुनावी मैदान में दूर-दूर तक नहीं है। ऊपर से हाल ही में कांग्रेस से भाजपा में आए जबलपुर नगर निगम के महापौर जगत बहादुर सिंह ‘अन्नू’ ने इस सीट की सियासत को और एकतरफा बना दिया है। लेकिन, कमलनाथ सरकार में मंत्री रहे और 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की टिकट पर जीते एकमात्र विधायक घनघोरिया हार मानने को तैयार नहीं है। उनका कहना है कि पार्टी पूरी ताकत से मैदान में है।
इन सब बातों से इतर यदि जबलपुर की आम जनता के मुद्दों पर आया जाए, तो सबसे बड़ा मुद्दा है रोज़गार का। महकौशल के सबसे बड़े शहर के युवाओं को आज भी नौकरी ढूँढने के लिए इंदौर, मुंबई, बैंगलोर जैसे शहरों में जाना पड़ता है। इसके अलावा चौसठ योगिनी मंदिर, भेड़ाघाट के धुआंधार जलप्रपात, जैन तीर्थ पिसनहारी की मढ़िया जैसे अनेकों धार्मिक पर्यटन स्थलों के होने के बाद भी जबलपुर सांस्कृतिक रूप से अपनी पहचान अब तक नहीं बना पाया है। शहर में फ्लाईओवरों का काम भी धीमा है। सालों से नर्मदा रिवर फ्रंट बनाने को लेकर बात तो हो रही है, लेकिन धरातल पर कुछ नहीं उतर रहा। लोगों का कहना है कि योजनाएं बनती तो हैं लेकिन जबलपुर तक पहुँच नहीं पाती। इसके लिए वे बहुत हद तक 20 साल से जबलपुर से सांसद रहे राकेश सिंह को भी जिम्मेदार मानते हैं एक और बड़ा मुद्दा जबलपुर से देश के बड़े शहरों के लिए फ़्लाइट्स का न होना भी है। लोग कहते हैं कि केंद्रीय मंत्री सिंधिया के कहने पर ग्वालियर से मुंबई के लिए फ्लाइट तो शुरू हो गई। लेकिन, जबलपुर में ऐसी व्यवस्था कराने के लिए कौन गुहार लगाएगा?
बहरहाल, बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी कि रैलियों ने जबलपुर के चुनाव प्रचार के लिए बूस्टर डोज का काम किया है। पीएम मोदी का तो जबलपुर की जनता ने ऐसा स्वागत किया कि मंच कम पड़ गए। कुछ मंच गिर भी गए, जिससे समर्थकों को चोटें भी आईं। 7 सिटिंग विधायकों, पिछले 7 लोकसभा चुनाव में मिली जीत से भाजपा आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। कांग्रेस के पास प्रचार के लिए ले देकर राज्यसभा सांसद विवेक तनखा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ही हैं। स्थानीय तौर पर पूर्व मंत्री तरुण भानोत, सौरभ शर्मा भी अपना योगदान दे रहे हैं। लेकिन, कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व से यहाँ किसी के आने की उम्मीद फिलहाल तो नहीं है।
मोदी-नड्डा की रैलियों के बाद भी जबलपुर के बाज़ारों के व्यापारियों का यह कहना है कि जबलपुर में चुनाव प्रचार अभी ठंडा है। जनता के लिए दोनों उम्मीदवार नए हैं। जब वोट डालने जाएंगे, तो सामने पार्टी के बड़े नेताओं का चेहरा या पार्टी का चुनाव चिह्न ही रहेगा।