मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था सरकारी कागज़ों और स्वास्थ्य मंत्रालय के ट्विटर अकाउंट पर उन्नत और जन-कल्याणकारी दिखाई देती है। मगर, सच्चाई तो कुछ और है। आज हमारे प्रदेश का शिशु मृत्यु दर देश में सबसे ज्यादा हो गया है। जहां भारत में प्रति 1000 बच्चों पर औसतन 32 बच्चे दम तोड़ देते हैं। वहीं मध्यप्रदेश में यह आंकड़ा 48 का है। ये हम नहीं कह रहे। बल्कि, हाई कोर्ट में दायर की गई एक जनहित याचिका कह रही है। इस याचिका ने और कई सत्य उजागर किए हैं, जिन्हें सुनकर आप भी हैरान होंगे। आइए विस्तार से जानते हैं..
ये जनहित याचिका लगाई है चिन्मय मिश्र ने। इस याचिका में कहा गया है कि जहां देश में मृत्यु दर 32 प्रति 1000 है, वहीं मध्यप्रदेश में यह 48 है। यानि मध्यप्रदेश में जन्म लेने वाले 1000 बच्चों में से 48 की मृत्यु हो जाती है। माताओं से जुड़े आँकड़े भी परेशान करने वाले हैं। मध्यप्रदेश में प्रसव के दौरान 1000 में से 173 माताओं की मृत्यु हो जाती है। जबकि, देश में ये आंकड़ा 113 का है। इन दोनों आंकड़ों से ये बात साफ़ है कि एमपी की हालत देश के अन्य प्रदेशों से कहीं ज्यादा खराब है।
स्वास्थ्य सुविधाओं का ये हाल खासकर के प्रदेश के अनुसूचित, पिछड़े व ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलता है। इन इलाकों में केवल 55 प्रतिशत महिलाओं की ही प्रसव के दौरान 4 बार देखरेख हो पाती है, जो कि आवश्यक है। इसके अलावा बची हुई 45 प्रतिशत महिलाएं कई जरूरी आवश्यकताओं से वंचित रह जाती हैं। जैसे – प्रसव के समय आयरन व फ़ौलिक ऐसिड की टैबलेट का सेवन अति आवश्यक होता है। लेकिन, 100 में से 70 महिलाओं को ये टेबलेट्स नहीं मिल पातीं। इसका सीधा प्रभाव उनके और उनके होने वाले बच्चे पर पड़ता है।
ये हम अक्सर सुनते हैं कि नवजात शिशुओं और माताओं के बढ़ते मृत्यु दर से सरकार भी परेशान है। मगर, सरकार की नाकामी इस एक बात से ही साफ़ ज़ाहिर हो जाती है। प्रदेश में कुल 309 कम्युनिटी हेल्थ सेंटर हैं। हर सेंटर पर एक फिजीशियन, एक सर्जन, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ व एक बच्चों के चिकित्सक की नियुक्ति आवश्यक है। लेकिन, असलियत तो ये है कि मध्यप्रदेश का ऐसा एक भी कम्युनिटी हेल्थ सेंटर नहीं है, जिसमें इन सब की नियुक्ति हो। और तो और कुल 324 सर्जनों में से केवल 7 की ही नियुक्ति हुई है।
इस मुद्दे को थोड़ा और गहराई में जाकर समझा जाए, तो मध्यप्रदेश के गांवों में गर्भवती महिलाओं व नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य जिम्मा काफी हद तक आशा कार्यकर्ताओं के पास होता है। कुल 77,531 आशा कार्यकर्ता ही प्रेग्नेंसी के समय से प्रसव तक माताओं की देखरेख करती हैं और नवजात शिशुओं का स्वास्थ्य और टीकाकरण भी इन्हें की ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन, असलियत तो ये है कि माताओं व नवजात शिशुओं के लिए संजीवनी बनने वाली इन आशा कार्यकर्ताओं के प्रबंधन पर भी सरकार ठीक से ध्यान नहीं देती। इनकी तनख्वाह केवल 6 हज़ार रुपए प्रतिमाह है।
अब आइए आपको बताते हैं कि ये आशा कार्यकर्ता 6 हज़ार रुपए महीने में क्या-क्या काम करती हैं। एक आशा कार्यकर्ता की जिम्मेदारियों में गर्भवती महिलाओं व शिशुओं के स्वास्थ की निगरानी करना, राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान के बच्चों को टीका लगवाना, परिवारों को सामान्य संक्रमणों की रोकथाम के बारे में परामर्श देना, सही पोषण संबंधी मार्गदर्शन देना, गाँव में होने वाले किसी भी जन्म या मृत्यु की जानकारी रखना आदि शामिल हैं। इसके अलावा सरकार इनसे समय-समय पर कई सर्वे भी करवाती है।
कोरोना के समय तो आशा कार्यकर्ताओं ने अपनी जान पे खेलकर लोगों को घर-घर जाकर भोजन, दवाइयाँ व स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कारवाई थीं। इसके लिए तो स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें सराहा था। ये सब काम इन्हें गली मोहल्लों तक पैदल या अपने साधन से जाकर ही करना पड़ता है। अधिकारी गैर-जिम्मेदार हैं। आशा कार्यकर्ताओं का सही प्रबंधन नहीं कर पाते, जिससे कई इलाकों में सुविधाएं समय पर पहुँच ही नहीं पाती।
तो सौ बात की एक बात ये है कि यदि प्रदेश के 309 कम्युनिटी हेल्थ सेंटरों में जरूरत के मुताबिक स्टाफ की नियुक्ति कर दी जाए और आशा कार्यकर्ताओं का प्रबंधन कर उन्हें उचित प्रोत्साहन दे दिया जाए, परिदृश्य में बदलाव आ सकता है।
अब उस याचिका पर वापस आते हैं जिससे इस रिपोर्ट की शुरुआत हुई थी। याचिका पर सुनवाई करते हुए 19 जुलाई को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस एसए धर्माधिकारी और जस्टिस दुपल्ला वेंकटरमन्ना ने नोटिस भेजकर शासन से जवाब तलब किया है। अब देखना होगा कि इस बार मोहन सरकार माताओं और नवजात शिशुओं के मौत में हो रहे इज़ाफ़े को लेकर क्या सफाई देती है।